Thursday, May 13, 2010

ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ता खतरा ...


उफ्फ! यह गर्मी, और यह धूप
न दिखे हरी घास का कोई तिनका
पंछी ने भी आमबर से मुह मोड़ लिया
न गूँजे मधूर संगीत, न दिखती तितलिय
उठे जब सुबहा तो
वो सूरज के पहेली किरण
शीतल शीतल हवाए
मधाम उज्यले को चीरती आई
वोही सूरज के किरण ए
जान लेने को आती है
सुबहा शाम जो प्यास बुझाए
गर्मी के दुपहरी में
बूँद बूँद को तरसती है
पीले पड़े पेधो के पत्ते
अब तो आखरी भी झढ़ राहा है
नही हरी शाखाओ की उमीद
कतरा कतरा भूमि फॅट रही ह
कही कोई किसान दिखता है
मज़दूरी और सिर्फ़ पसीना
जलती गर्मी में लहराते
और खून से सिचे गये वो
खेत नज़र आते है
तरसते है पानी नही
बंजर गाओं नज़र आते है
महेलो में बैठे है वो सेठ
ग़रीब के अस्क पीते नज़र आते 

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